khuda-e-Sukhan Meer | खुदा-ए-सुखन मीर


खुदा-ए-सुखन मीर :

khuda-e-Sukhan Meer
khuda-e-Sukhan Meer


"रेख्ते के तुम्ही उस्ताद नहीं हो गालिब,
कहते हैं अगले जमाने में कोई मीर भी था"

رحتی کے تمہیں استاد نہیں ہو غالب 
کہتے ہیں اگلے زمانے میں کوی میر بھی تھا ۔ 

मिर्जा गालिब ने यह बात उन मीर तकी मीर के बारे में कही थी जिन्हें खुदा-ए-सुखन यानी 'शायरी' का ख़ुदा कहा जाता है. रेखता यानी शुरुआती उर्दू यह मीर की ही उर्दू थी जिसने गालिब को फारसी छोड़कर इसी जुबान में लिखने को मजबूर किया. वैसे उस दौर के कुछ और मशहूर शायर जैसे सौदा, मजहर, नजीर अकबराबादी और 'दर्द' उर्दू में लिखने लगे थे, पर मीर का असर सबसे ज्यादा था. उर्दू शायरी की शुरुआत की बात हो तो सबसे पहले नाम मीर का ही लिया जाता रहै. इस दौर को उर्दू शायरी का 'सुवर्णकाल' कहा जाता है.कहते हैं कि गालिब और इकबाल की शायराना महानता को इनकार करने वाले मौजूद है. मगर 'मीर की उस्तादी से इनकार करने वाला कोई नहीं है. मीर ने अपने जीवन के बारे में "जिके मीर' में लिखा है. मीर के बुजुर्ग हिजाज जिसकी निगाहबानी में जवान हुई उर्दू(अरब का प्रात) से भारत आये थे.पहले वे हैदराबाद गए, वहां सेअहमदाबाद और आखिर मेंअकबराबाद (आगरा)-आकर बस गए. 


khuda-e-Sukhan Meer
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● मुगलों के अंत और नादिर शाह की लूट ने फारसी व हिदुस्तान के लिए बेगाना कर दिया. सत्रहवीं और अट्ठारहवीं सदी उर्दू लेकर आई. र्दू को डेरे की जुबान कहा जाता था. ऐसा इसलिए कि अलग-अलग इलाकों के सैनी के जमावड़े में जो भाषाई तालमेल हुआ उससे उर्दू पैदा हुई. मीर का लिखना और उर्दू उपने पैरों पर खड़े होना लगभग एक ही समय हुआ. उर्दू मीर की उंगलियां शाम अहिस्ता-हिस्ता अपना सफर तय करते हुए उनकी निगाहबानी में जवान हुई.

इश्क और नाकामी का दर्द
मीर की शायरी में इश्क और उसकी नाकामी के बाद पैदा होने वाला दर्द दीखता है. मिसाल के तौर पर ये शायरी देखिए.....
देख तू दिल कि जा से उठता है,
ये धुआ सा कहां से उठता है.
इस गजल के सारे शेर गम में डूबे हुए है. इसको मेहदी हसन की आवाज में सुनने पर दर्द के कई गुना बढ़ने का गुमां होता है.
मीर ने दर्द में नाकामी से उबरते हुए शायद जीने का सोचा होगा
या कभी यूं हार मान लेना उन्हें भी खीजा होगा. इसकी बानगी उनकी एक गजल के कुछ अशआर है....

'कस्द (इरादा) गर इम्तिहान है प्यारे,
अब तलक नीम जान है प्यारे

अम्द (बेवजह ही मरता है कोई 'मीर'
जान है तो जहान है प्यारे'

मीर ने कुल छह दीवान लिखे हैं. पहला
1752 के आसपास और आखिरी
1810 में. उन्होंने लगभग 13 हजार
अशआरों का जखीरा खड़ा किया था.

कुछ
शेर....

आग थ इब्तिदा-ए-इश्क में हम 
 अब जो है खाक इंतिहा है य

 آگ تھے ابتدا عشک میں ہم 
-اب جو ہیں حاک انتہا ہیں یہ 

दिखाई दिए यूँ कि ब-खुद किया
हमें आप से भी जुदा कर चले

इश्क इक 'मीर' भारी पत्थर है
कब ये तुझ नातवाँ से उठता है

मेरे सलीके से मेरी निभी मोहब्बत में
तमाम उम्र में नाकामियों से काम लिया
میرے سليکہ سے ميرى نبھی محبت میں
تمام عمر میں ناکامیوں سے کام لیا

नाजुकी उस के लब की क्या कहिए
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है

इश्क करते हैं उस परी-रू से
"मीर" साहब भी क्या दिवाने है

इश्क का घर है 'मीर' से आबाद
ऐसे फिर खानम खराब कहाँ

عشق کا گھر ہے مير سے آباد
ایسے فر خانم حراب کہاں

इश्क में जी को सब ओ ताब कहाँ
उस से आँखे लड़ी तो ख्वाब कहाँ

عشق میں جہ کو سب اُو تاب کہاں
اُس سے آنکھیں لڑتی تو خواب کہاں

इश्क से जा नही कोई खाली
दिल से ले अर्श तक भरा है इश्क

عشق سے جا نہیں کوئی خالی 
دل سے لے عرش تک  بھرا ہے عشق

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