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आती है उर्दू जुबान आते-आते...दाग
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1857 में दिल्ली उजड़ी, लखनऊ बर्बाद हुआ. ऐशो-आराम और शांति के दिन खत्म हुए. शायर अब दिल्ली और लखनऊ छोड़ रामपूर, भोपाल, मटियाब्रिज और हैदराबाद पहुंच वहा के दरबारी की शान बढ़ाने लगे। अब उर्दू शायरी में दिल्ली और लखनऊ का मिला-जुला अंदाज़ नज़र आने लगा। इस दौर मशहूर शायर हुए 'दाग'।
"नहीं खेल-ए-दाग यारों से कह दो कि
आती है उर्दू जुबान आते-आते"
نہیں کھیل داغ یاروں سے کہ دو
آتی ہے اردو زوبان آتے آتے ہ
यह लाइन बता रही है कि दाग ने को फारसी के कठिन और मुश्किल शब्दों की पकड़ से छुड़ाते हुए उर्दू के आसान शब्दों में पिरोया था। उस समय की आम बोलचाल की भाषा यह कितना कठिन काम था यह दाग जानते थे।
दाग़ की जिंदगी और उनकी शायरी। दोनों ही ऐसे फलसफों से भरी है।
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आशिकी से मिलेगा ऐ ज़ाहिद
बंदगी से खुदा नहीं मिलता
अजब अपना हाल होता, जो विशाले यार होता.....
कभी जान सदके होती, कभी दिल निसार होता.....
عاشقی سے ملے گا اے زاہد
بندگی سے خدا نہیں ملتا
عجب اپنا حال ہوتا، جو وصال یار ہوتا
کبھی جان صدکے ہوتی، کبھی دل نثار ہوتا
उर्दू के मशहूर शायर 'दाग' की लिखी यह शायरी उनके हाल-ए-दिल को बखूबी बयां करती हैं. दिल्ली में 1831 में जन्मे दाग का असली नाम नवाब मिर्जा खाँ 'दाग' अपने जीवनकाल में जो ख्याति, प्रतिष्ठा और शानो-शौकत प्राप्त हुई, वह किसी बड़े-से- बड़े शायर को अपनी जिन्दगी में मयस्सर न हुई. कहते हैं हर शायर के दिल में एक दर्द होता है. दाग के साथ भी कुछ ऐसा ही था इसलिए इस नाम को अपने भीतर के शायर के लिए चुना. दाग पांच-छह साल के थे तभी उनके पिता शम्सुद्दीन खाँ की मृत्यु हो गई. इसके बाद उनकी माता ने बहादुर शाह 'जफर' के पुत्र मिर्जा फखरू से विवाह कर लिया. दिल्ली में रहकर दाग ने पढ़ाई की और वहीं पर रहकर इन्हें 'कविता, से इश्क हो गया.
दाग खासतौर पर जज्बाती और इश्क मोहब्बत वाली शायरियां करते थे. यही उनकी खासियत थी.
'उर्दू है जिसका नाम हमी जानते हैं दाग,
सारे जहां में धूम हमारी जुबां की है'
,اردو ہے جس کا نام ہم جانتے ہیں دگ"
"سارے جہاں میں دھوم ہماری زوبان کی ہے
दाग शीलवान, विनम्र, विनोदी व स्पष्टवादी थे और सबसे प्रेमपूर्वक व्यवहार करते थे. जनसाधारण के वे महबूबे शायर थे. उनके सामने मुशायरों में किसी का भी रंग नही जमने पाता था.
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दाग के पांच दीवान 'गुलजारे दाग',
'महताबे दाग', 'आफताबे दाग,
"यादगारे दाग, "यादगारे दाग- भाग-
2, जिनमें 1038 से ज्यादा गजले,
अनेको मुक्तक, रुबाईयां, सलाम
मर्सिये आदि शामिल था. एक 838 .
शेरों की मसनवी भी फरियाद दाग'
के नाम से प्रकाशित हुई.
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कुछ
शेर .........
बने है जब से वो लैला नई महमिल में रहते हैं
जिसे दीवाना करते है उसी के दिल में रहते हैं।
खातिर से या लिहाज़ से मैं मान तो गया
झूटी कसम से आप का ईमान तो गया
दिल ले के मुफ़्त कहते हैं कुछ काम का नही
उल्टी शिकायतें हुई एहसान तो गया
होश ओ हवास ओ ताब ओ तवाँ 'दाग' जा चुके
अब हम भी जाने वाले है सामान तो गया
लुत्फ वो इश्क में पाए है कि जी जानता है
रज भी ऐसे उठाए है कि जी जानता है
जो जमाने के सितम है वो जमाना जाने
तू ने दिल इतने सताए है कि जी जानता है
तुम नही जानते अब तक ये तुम्हारे अंदाज
वो मिरे दिल में समाए है कि जी जानता है
इन्ही कदमों ने तुम्हारे इन्ही कदमों की कसम
खाक में इतने मिलाए हैं कि जी जानता है
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