' खाकानी-ए-हिन्द शेख इब्राहीम जौक़
बहादुरकर के उस्ताद शेख इब्राहीम जी के बारे में कहा जाता है कि उनकी गालिद से अमूमन अदादत रहती थी । जौक के वालिद शेख मुहम्मद एक अदना सिपाही थे जो दिल्ली में काबुली दरवाजे के पास रहते थे । इब्तिदाई तालीम हाफिज गुलाम रसूल के मदरसे में हुई जो खुद 'शौक' के तखल्लुस से शायरी करते थे. जौक़ की मंजिल थी कि उनकी शोहरत शाही किले तक कुछ और कुछ मशक्कत और बाकी किस्मत, यह भी हो गया । जफर ने जौक़ को उस्ताद कुबूल किया. उन्हें 'खाकानी-ए-हिंद का खिताब मिला.
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Sheikh Muhammad Ibrahim Zauq |
उस्तादी कांटों का ताज थी :-
उस्तादी तो मिलना शान की बात तो थी पर मुश्किलें भी कम नहीं थी. जफर को कोई मिसरा पसंद आ जाता, तो जौक़ को उसे पूरा करने की जिम्मेदारी दे दी जाती. एक दफा जफर, जौक़ और 'मिर्जा' फखरू तालाब के किनारे सैर कर रहे थे. फखरू ने मिसरा उछाल दिया कि "चांदनी देखे अगर वह महजबी तालाब पर और जौक़ को कहा कि उस्ताद इसे शेर बनायें. जौक़ ने फौरन मिसरा लगाया 'ताबे अक्से रुख से पानी फेर दे मेहताब पर '
अलहदा रंग :-
जौक़ में ज्यादातर उर्दू में लिखा, अलपजों के सही. इस्तेमाल और राज्य की रवानगी में उनका सानी नही था. इनके कलामों में सादा जुबानी, हुनपरस्ती और मुहब्बत की कशिश बाकमाल नजर आती है.
"आना तो खफा आना, जाना तो कला जाना
आना है तो क्या आना, जाना है तो क्या जाना''
"क्या आये तुम जो आये घड़ी दो घड़ी के बाद
सीने में सांस होगी अड़ी दो घड़ी के बाद''
जौक़ बनाम गालिब :-
मशहूर किस्सा है कि बादशाह और उनकी अजीजा बेगम जीनत महल के बेटे मिर्जा जवां बखत के निकाह पर मिर्जा नोशा (मिर्ज़ा ग़ालिब) को बखत का सेहरा पढ़ने का जिम्मा मिला. वहीं जफर की ख्वाहिश थी कि जौक़ इस काम को अंजाम दें. खैर, तय हुआ कि जवा बख्त का सेहरा जौक और गालिब दोनों ही लिखेंगे. गालिब ने सेहरे के मकते (आखिरी शेर) में कहा-
''हम सुखनफहम हैं गालिब के तरफदार नहीं
देखें इस सहरे से कह दे कोई बढ़कर सेहरा.
महफिल में ये साफ जाहिर हो गया कि गालिब ने जौक़
पर तंज कसा है. बादशाह जफर जौक़ की तरफ मुखातिब होकर बोले कि वो भी फौरन से पेश्तर इसी मौजू पर कुछ फरमाएं. जफर ने कहा.....
ऐ जवा बख्त! मुबारक तुझे सर पर सेहरा
आज है यग्नो-सआदत का तेरे सर पर सेहरा''
मकते में उन्होंने गालिब की बात का यूं जवाब दिया.
"जिसको दावा हो सुखन का ये सुना दो उनको
देख इसे कहते हैं सुखनदर सेहरा"
कहते हैं उस दिन जौक़ ने महफिल लूट ली थी. जफर गालिब की इस बेहयाई से खासे नाराज भी हुए.
कुछ
शेर.......
हाथ सीने पे मेरे रख के किधर देखते हो
इक नज़र दिल से इधर देख लो गर देखते हो
देख कर कातिल को भर लाए खराश-ए-दिल में खूँ
सच तो ये है मुस्कुराना कोई हम से सीख जाए
कह दो क़ासिद से कि जाए कुछ बहाने से वहाँ
गर नही आता बहाना कोई हम से सीख जाए
खत में लिखवा कर उन्हें भेजा तो मतला दर्द का
दर्द-ए-दिल अपना जताना कोई हम से सीख जाए
जब कहा मरता हूँ वो बोले मिरा सर काट कर
झूट को सच कर दिखाना कोई हम से सीख जाए
अब तो घबरा के ये कहते है कि मर जायेंगे
मर गये पर न लगा जी तो किधर जायेंगे
हम नहीं वह जो करें खून का दावा तुझपर
बल्कि पूछेगा खुदा भी तो मुकर जायेंगे
लायी हयात, आये, कजाले चली, चले
अपनी खुशी न आये न अपनी खुशी चले
'जौक़' जो मदरसे के बिगड़े हुए है मुल्ला
उनको मैखाने में ले लाओ, संवर जायेंगे
हुए क्यूँ उस पे आशिक हम अभी से
लगाया जी को नाहक गम अभी से
दिला रब्त उससे रखना कम अभी से
जता देते है तुझको हम अभी से
तुम जिसे याद करो फिर उसे क्या याद रहे
न खुदाई की हो परवा न खुदा याद रहे
जो कुछ कि है दुनिया में वो इंसाँ के लिए है
आरास्ता ये घर इसी मेहमाँ के लिए है
जुल्फें तिरी काफ़रि उन्हें दिल से मिरे क्या काम
दिल काबा है और काबा मुसलमां के लिए है
जाहिद शराब पीने से काफ़रि हुआ मैं क्यूँ
क्या डेढ़ चुल्लू पानी में ईमान बह गया |
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